थुब्तेन ल्हुंदुप लेग्सांग (1918-1990) पूर्वी तिब्बत के धारत्सेंदो से आए तुल्कुओं की पंक्ति में बारहवें थे. पिछले तुल्कु, जो धारत्सेंदो से ही थे, एक न्यिंग्मापा तुल्कु थे, लेकिन उन्होंने गेलुग्पा के ड्रेपुंग मठ में शिक्षा प्राप्त की थी और उसके मुख्य मठाधीश बन गए थे. रिम्पोचे गेलुग्पा परंपरा के वे  'उच्च तुल्कु' थे इस कारण से धार्दो रिम्पोचे के प्रति भंते संघरक्षित का सम्मान और प्रशंसा नहीं थी, बल्कि कई वर्षों में उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से देखा था कि रिम्पोचे में छह पारमिताओं के गुण है. संघरक्षितजी के रिम्पोचे से लगभग दस साल तक परिचित होने और उन्हें जीवित बोधिसत्व के रूप में सम्मान देने के बाद, बोधिसत्व दीक्षा देने का अनुरोध किया. यह दिक्षा रिम्पोचे ने 12 अक्टूबर 1962 को दी. रिम्पोचे ने संघरक्षितजी को श्वेत तारा और भैषज्यराज बुद्ध साधनाओं में भी दीक्षित किया था.

 
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“1954 में धारदो रिम्पोचे पुराने भूतान पैलेस में चले गए थे, और यहीं पर हमारी दूसरी मुलाकात हुई थी. वह तब छत्तीस साल के थे, मुझसे सात साल बड़े. मध्यम कद और थोड़े दुबले-पतले शरीर वाले. उन्होंने भिक्षु पोशाक का एक अनौपचारिक ‘इनडोर’ संस्करण पहना था. जिसमें एक हलके पीले रंग का अंडरस्कर्ट और नारंगी रेशम की बिना आस्तीन की शर्ट थी. उनके काले बाल कटे हुए थे, थेरवादि भिक्षु की तरह मुंडा हुआ सिर नही था, और उनके ऊपरी होंठ पर कुछ ही लंबे बालोंवली एक पतली मूंछ थी.

“रिम्पोचे बहुत कम अंग्रेजी बोलते थे, लेकिन उन्हें व्याकरण-हीन धाराप्रवाह हिंदी आती थी, और हम उसी भाषा में बातचीत करते थे. जिन वर्षों में हम व्यक्तिगत संपर्क में रहे, हमारे बीच एक तरह की बोली विकसित हुई थी, जिसमें हमारी आम हिंदी में अंग्रेजी शब्दों और वाक्यांशों के साथ-साथ तिब्बती और यहां तक ​​कि संस्कृत, धार्मिक और दार्शनिक शब्दों का भी मिश्रण था. इस प्रकार हम राजनीति से लेकर शून्यता के सिद्धांत तक और साधना अभ्यास से लेकर पुस्तकों और पुस्तिकाओं के निर्माण तक लगभग किसी भी विषय पर चर्चा कर सकते थे. इस तरह की चर्चाओं में  हमारे संवाद में एक अतःप्रेरणा का तत्व था, जैसे मन का आंतरिक संवाद हो, जो हमारे द्वारा बोले गए शब्दों को पूरक हुआ करता था, यहां तक ​​कि शब्दों के उच्चारण की जरुरत ही ना हो.

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“जब तक मै भारत मे रहा यह  मित्रता कायम रही, मेरे इंग्लैंड जाने के बाद भी समाप्त नहीं हुई. यह एक ऐसी मित्रता थी जिसके दौरान धार्दो रिम्पोचे और मैंने बौद्ध धर्म की भलाई के लिए, विशेष रूप से कलिम्पोंग में, मिलकर काम किया था. यह एक ऐसी मित्रता थी, जिसकी परिणति 1962 में उनसे बोधिसत्व दीक्षा और उसके अगले वर्ष श्वेत तारा ‘दीर्घायु’ दीक्षा प्राप्त करने में हुई, जिससे वे मेरे मित्र होने के साथ-साथ मेरे गुरु भी बन गए.”

Precious Teachers, The Complete Works of Sangharakshita, vol. 22, pp.420–2

 
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सफेद तारा तोर्मा (पूजा अर्पण)

मिट्टी से बने ये तोर्मा या पूजा अर्पण सफेद तारा अभिषेक से हैं जो धार्दो रिम्पोचे ने संघरक्षितजी को 1963 के अंत में पश्चिम की उनकी यात्रा से पहले दी थी.

“धार्दो रिम्पोचे चाहते थे की मै अपने जीवन मे बिना किसी बाधा के आगे बढता रहूं.  विशेषतः वे चाहते थे कि मेरी अपनी जीवन-शक्ति में कोई बाधा ना आए जिससे मेरा कार्य बाधित हो.  इसलिए उन्होंने मुझे, कुछ समय पहले ही, श्वेत तारा, दीर्घायु स्त्री बोधिसत्व का अभिषेक दिया था, और उनकी मदद से मैंने संबंधित साधना के पाठ का अंग्रेजी संस्करण बनाना शुरू कर दिया था. मैं इंग्लैंड जाने से पहले इस संस्करण का पहला मसौदा तैयार करना चाहता था. रिम्पोचे और मैंने इस परियोजना पर एक साथ काम करते हुए कई घंटे बिताए. हम शाम को, पुराने भूतान पैलेस में रिम्पोचे के क्वार्टर में काम करते थे. कभी-कभी ऐसा लगता था कि कमरे में तीन लोग हैं, और श्वेत तारा हमारे काम को मुस्कुराते हुए देख रही हैं.”

Precious Teachers in The Complete Works of Sangharakshita, vol.22, p.562

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धारदो रिम्पोचे की ब्रोकेड भिक्षु जैकेट

तिब्बत में रिम्पोचे अक्सर अपने वरिष्ठ शिष्यों को अपने चिवर उपहार में देते थे, ताकि वे अपने भावी जीवन में उनसे मिलने के लिए संपर्क बना सकें. यह ब्रोकेड भिक्षु जैकेट धारदो रिम्पोचे ने व्यक्तिगत रूप से पहना था और युवा भिक्षु के रूप में अपने साथ भारत लाए थे., जब 1966 में संघरक्षितजी ने अंततः भारत छोड़ने और पश्चिम में स्थायी रूप से काम करने का फैसला किया, तब उन्होंने इसे उपहार के रूप में उन्हे दिया था.

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