24 नवंबर 1950 को भिक्खु दीक्षा के बाद संघरक्षितजी उ ज़ौरा (बाएं) और उ कावेइंडा (दाएं) के साथ.
संघरक्षितजी (1925-2018) का जन्म लंदन में हुआ, डेनिस लिंगवुड नाम था. 1942 की गर्मियों में, जब वह सत्रह वर्ष के हुए, जब द्वितीय विश्व युद्ध की सरगर्मीयों में बम गिराए जा रहे थे, तब उन्होंने डायमंड सूत्र पढ़ा और महसूस किया कि वह बौद्ध थे. उन्होंने बाद में लिखा, 'ऐसे लगा, मैं हमेशा बौध्द ही था.' 1944 में उन्हें ब्रिटिश सेना में भर्ती कर लिया गया और अगले दो वर्षों तक वह भारत, सीलोन और सिंगापुर में तैनात रहे - लेकिन जहां भी उन्होंने खुद को पाया, धम्म के आचरण का प्रयास किया.
युद्ध के बाद वे भारत लौट आए और अगस्त 1947 में, भारतीय स्वतंत्रता की घोषणा के कुछ ही दिनों बाद, एक बंगाली मित्र के साथ, उन्होंने पारंपरिक भगवा वस्त्र धारण किया और एक भटकते भिक्षुक की जीवन शैली अपनाई. अगले दो वर्षों में उन्होंने ध्यान किया और धर्म पर गहराई से चिंतन किया. दक्षिणी भारत में अरुणाचल पर्वत पर विरूपाक्ष गुफा में उन्हें बुद्ध अमिताभ का दृष्टांत हुआ था. उन्होंने इसे एक संकेत के रूप में लिया कि 'गृहहीन जीवन की उनकी प्रशिक्षुता समाप्त हो गई है' और अब बौद्ध भिक्षु के रूप में दीक्षा लेने का समय आ गया है. मई 1949 में बुद्ध के परिनिर्वाण स्थल कुसिनारा में दीक्षा संपन्न हुई.
इसके बाद संघरक्षितजी ने अपने पहले बौद्ध शिक्षक, एक भारतीय बौद्ध भिक्षु और विद्वान, जगदीश कश्यपजी, के साथ सात महीने बिताए. भारत में बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार के लिए किए गए सबसे उत्कृष्ट योगदानों में उनका योगदान रहा है. वे तब बनारस में हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे. संघरक्षितजी ने उनके साथ पालि, अभिधम्म और तर्कशास्त्र का अध्ययन किया. 1950 के वसंत में, कश्यपजी संघरक्षितजी को कलिम्पोंग ले गए. चौबीस वर्षीय अंग्रेज भिक्षु के लिए उनके विदाई शब्द थे: 'यहां रहो और बौद्ध धर्म की भलाई के लिए काम करो.' अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए संघरक्षित चौदह वर्ष तक वहीं पर रहें.
कलिम्पोंग उत्तर-पूर्वी भारत में बर्फीले हिमालय की कुछ सबसे ऊंची चोटियों के नजदीक बसा हुआ है. तिब्बत में ल्हासा से भारत तक एक व्यस्त व्यापार मार्ग के अंत में यह शहर स्थित है. तिब्बत के साथ व्यापार करनेवाले भारत, सिक्किम, भूटान और नेपाल के लोगों के लिए यह एक हमेशा व्यस्त मिलन स्थल था.
इसी परिवेश में संघरक्षितजी ने 'बौद्ध धर्म की भलाई के लिए काम करना' शुरू किया: उन्होंने यंग मेन्स बुद्धिस्ट एसोसिएशन की स्थापना की, 'हिमालयी धर्म, संस्कृति और शिक्षा की पत्रिका' स्टेपिंग-स्टोन्स की स्थापना की, और कई वर्षों तक महाबोधि पत्रिका का संपादन किया जो अपने समय की अग्रणी अंग्रेजी भाषा की बौद्ध पत्रिका थी. उन्होंने एक विहार की भी स्थापना की जिसमें बौद्ध परंपरा के तीनों यानों या मार्गों पर जोर दिया गया. उस समय लामा अनागारिक गोविंदा ने इसे पूर्व या पश्चिम के लिए अद्वितीय बात कहते हुए स्वागत किया था.
इन वर्षों के दौरान, तीन अवसरों पर उनकी मुलाकात डॉ. बी.आर. अम्बेडकर से हुई. वे भारतीय संविधान के शिल्पकार और 'बहिष्कृत' हिंदूओं के बौद्ध धर्म में धर्मातरण के आंदोलन के बहुत बड़े नेता थे. इस बड़े धर्मातरण से उन्होंने अपने अनुयाई (और खुद को) 'जाति के नरक' से मुक्त कराया. डॉ. अंबेडकर के जीवन और कार्य के उदाहरण ने संघरक्षितजी पर इतना प्रभाव डाला कि 1956 से लेकर भारत छोड़ने तक लगभग हर साल उन्होंने कुछ महीने भारत के नए बौद्धों से मिलने और उन्हें धम्म सिखाने में समर्पित कर दिए. अपने सभी कार्यों के माध्यम से, संघरक्षितजी ने मित्रताएँ बनाईं. विभिन्न पृष्ठभूमियों और बहुत अलग आध्यात्मिक परंपराओं के विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ कुछ गहरी आध्यात्मिक मित्रताएँ भी उनमें शामिल थीं.
कलिम्पोंग, भारत 1960 का दशक
त्रियान वर्धन विहार, कलिम्पोंग 1950 का दशक
1950 में चीन के तिब्बत में प्रवेश के बाद के वर्षों में, कई प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षुओं और लामाओं सहित तिब्बती शरणार्थियों ने तेजी से कलिम्पोंग की ओर रुख किया था. तिब्बत से भाग आए इन्हीं तिब्बतियों में से छह बौद्ध शिक्षकों से, संघरक्षितजी की मुलाकाते हुई.
उन्हें पहले से ही धर्म के सभी मुख्य बौद्ध परंपराओं मूल सिद्धांतों की गहरी समझ थी, इसिलिए वह इन महान गुरुओं की कुछ शिक्षाओं का लाभ उठाने के लिए असाधारण रूप से अद्वितीय और भाग्यशाली स्थिति में थे. शरणार्थी होने की नौबत नही आती तो शायद ही यह गुरु तिब्बत छोड़ बाहर आते. इन अनमोल शिक्षकों की ध्यान पद्धतियाँ संघरक्षितजी के माध्यम से हमारे पास आई हैं और अब त्रिरत्न बौद्ध संघ और आंदोलन द्वारा इसे जीवित रखा गया है.
योगी चेन, कलिम्पोंग के संघरक्षितजी के शिक्षकों में से एक थे. वे तिब्बती नहीं बल्कि एक चीनी तपस्वि थे, जिन्हें विशाल चीनी बौद्ध ग्रंथों की आश्चर्यजनक समझ थी. वे अपना अधिकांश समय शहर के केंद्र में अपने छोटे से आश्रम में ध्यान में बिताया करते थे.
काचू (खाचोद) तुल्कु, संघरक्षितजी के तिब्बती शिक्षकों में से एक, कलिम्पोंग के उत्तर में स्थित छोटे राज्य सिक्किम के मुख्य लामा थे. धार्दो तुल्कु को तिब्बत के सबसे बड़े मठों में से एक का बहुत उच्च लामा माना जाता था, लेकिन चीनी आक्रमण के समय तिब्बत में नहीं होने का सौभाग्य उन्हें मिला. वह 1949 से भारत में थे, बोधगया और कलिम्पोंग में रहते थे. ये दोनों लामा आजीवन भिक्षु थे जिन्हें तुल्कु याने पिछले लामाओं का पुनर्जन्म माना जाता था.
जम्यांग खेंत्से रिम्पोचे, दिल्गो खेंत्से रिम्पोचे, और दुजोम रिम्पोचे भी तिब्बती बौद्ध धर्म के निंगमा स्कूल के पिछले प्रसिद्ध लामाओं के तुल्कु थे, जो स्वयं अपनी अपनी तरह से काफी प्रसिद्ध थे. उन्हें सम्मानजनक उपाधि 'रिम्पोचे' से संबोधित किया जाता है, जिसका अर्थ है 'अनमोल व्यक्ति'.
चत्रुल संग्ये दोर्जे को 'रिम्पोचे' के नाम से भी जाना जाता था. वह न तो भिक्षु थे और न ही तुल्कू, बल्कि एक अनासक्त (चत्रल) भटकते हुए योगी थे. जो कभी-कभी वर्षों तक गुफाओं में रहते थे और ध्यान करते थे. और कभी-कभी जहां महान योगियों ने ध्यान किया थां ऐसी गुफाओं, स्तूपों, पवित्र झीलों और पहाड़ों की खोज में घुमते रहते थे. वह सामाजिक मान्यताओं के परे थे और उनका आना जाना कोई नही जानता था. यदि आप उन्हें ढूंढ सकें! तो एक शिक्षक के रूप में उनकी अत्यधिक मांग थी.
भारत के कलिम्पोंग में बुद्ध जयंती उत्सव जुलूस, 1956
पवित्र अवशेष जुलूस के रूप में कलिम्पोंग, भारत, से निकलते हुए. 1951
थारपा चोलिंग मठ, कलिम्पोंग में उत्सव. 1960 के दशक की शुरुआत में
खाचोद (काचू) रिम्पोचे संघरक्षितजी को मुद्रा करके दिखाते हुए.
इन आठ असाधारण व्यक्तियों को संघरक्षितजी अपने प्राथमिक बौद्ध शिक्षक मानते थे. उनमें से प्रत्येक ने त्रिरत्नों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की गहराई और धर्म के उनके अभ्यास की गंभीरता को पहचाना और दीक्षा और शिक्षाएँ प्रदान की. संघरक्षितजी ने अपनी ओर से न केवल उनकी शिक्षाओं से बल्कि बुद्धि और करुणा के गुणों से ओत-प्रोत उनके जीवन के उदाहरणों से भी बहुत प्रेरणा ली. इन महान शिक्षकों की प्रेरणा त्रिरत्न बौद्ध महासंघ के जीवन में प्रवेश कर गई है.
प्रदर्शनी में प्रदर्शित सभी वस्तुएँ संघरक्षितजी के निजी संग्रह से हैं. बहुत सी वस्तुएं उनके शिक्षकों से सीधे जुड़ी हुयी हैं. उर्ग्येन संघरक्षितजी के साथ उनके संबंध को उजागर करने के लिए वस्तुओं, तस्वीरों, चित्रों, पुस्तकों और ग्रंथों को हमने एक साथ लाया है. कुछ वस्तुएँ नीरस लग सकती हैं, अन्य गूढ़; कुछ हैरान करने वाली और कुछ प्रेरणादायक हो सकती हैं. यहां की सभी विभिन्न वस्तुओं और वे कहां से आई हैं, कैसे लंदन उपनगर का एक युवक इन महान भारतीय, चीनी और तिब्बती शिक्षकों से मिल सकता है, उनसे संवाद कर सकता है, समझ सकता है और उनसे सीख सकता है, इस पर विचार करना प्रेरणा का एक समृद्ध स्रोत हो सकता है.
“मैं जगदीश कश्यप का सम्मान करता हूं, जिन्होंने मुझे पाली और अभिधर्म सिखाया.
मैं चत्रुल संग्ये दोरजे का सम्मान करता हूं, जिन्होंने मुझे ग्रीन तारा की दीक्षा दी.
मैं काचू रिम्पोचे का सम्मान करता हूं, जिन्होंने मुझे पद्मसंभव साधना दी.
मैं जम्यांग खेंत्से रिम्पोचे का सम्मान करता हूं, जिन्होंने मुझे मंजुघोष, अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि और ग्रीन तारा की साधनाओं में दीक्षित किया.
मैं दुजोम रिम्पोचे का सम्मान करता हूं, जिन्होंने मुझे वज्रसत्व साधना की दीक्षा दी.
मैं धार्दो रिम्पोचे का सम्मान करता हूं, जिन्होंने मुझे श्वेत तारा साधना की दीक्षा दी और मुझे बोधिसत्व शील दिये.
मैं दिल्गो खेंत्से रिम्पोचे का सम्मान करता हूं, जिन्होंने मुझे पीले जंभाला, अमिताभ फोवा और कुरुकुल्ला से परिचित कराया.
मैं योगी चेन का सम्मान करता हूं, जिन्होंने मेरे साथ वज्रयान और चान का खजाना साझा किया.”
उर्ग्येन संघरक्षित - गारव सुत्त पर कुछ विचार (2017)