चत्रल (चतरुल) रिम्पोचे (1913-2015), संघरक्षितजी के अन्य तिब्बती शिक्षकों के विपरीत, किसी तिब्बती बौद्ध प्रतिष्ठान के तुलकु या ‘पुनर्जन्म’ लामा नहीं थे. पंद्रह वर्ष की आयु में, उन्होंने बौद्ध गुरुओं से शिक्षा प्राप्त करने के लिए घर छोड़ दिया था. वे हमेशा पैदल यात्रा करते थे, घोड़ों या टट्टुओं का उपयोग करने से इन्कार करते थे, और ज़्यादातर गुफाओं में रहते और ध्यान करते थे. यह जीवनशैली उनके उम्र के साठ के दशक के मध्य तक जारी रही जब उन्होंने पाँच तीन वर्षीय शिविरों की शुरुआत की और उनका निर्देशन किया. वे एक सख्त शाकाहारी थे जो शराब नहीं पीते थे या धूम्रपान नहीं करते थे. उन्होंने भिक्षुओं और आम लोगों को अपने किसी भी विहार या शिविर केंद्र में रहने के दौरान ऐसा ही खान-पान करने का आदेश दिया था. यहाँ तक कि आकस्मिक गैर-बौद्ध कार्यकर्ताओं को भी इन नियमों का पालन करना पड़ता था. वे न्यिंगमा परंपरा के कई सबसे महत्वपूर्ण वंशों के थे और उनकी शिक्षाओं के लिए उन्हें बहुत पसंद किया जाता था.

 
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संघरक्षितजी की प्रसिद्ध, अपरंपरागत चत्रल रिम्पोचे से पहली मुलाकात 1957 में हुई थी.

"मुझे नहीं पता कि मैंने प्रसिद्ध निंगमा लामा के दिखने की क्या उम्मीद की थी. लेकिन जब हम मिले तो मुझे कुछ झटका सा लगा. उनकी उम्र का अंदाजा लगाना मुश्किल था, शायद पैंतीस से पैंतालीस या पचास के बीच होगी. उनके मोटे काले बाल एक भिक्षु की तरह छोटे कटे हुए थे, और उन्होंने एक अस्पष्ट मैरून वस्त्र पहना हुआ था जो मैले भेड़ के चमड़े से बना हुआ लग रहा था. हालाँकि, जिस चीज़ ने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, वह था उनका चेहरा. जो लगभग क्रूरता की हद तक खुरदुरा और अपरिष्कृत था. वे एक सींग जैसी ऊंगलीयोंवाले किसान के जैसे लग रहे थे, जिसे अपने सूअरों और मुर्गियों के अलावा कुछ नहीं सूझता हो. साथ ही, उनके पूरे शरीर से चट्टान जैसी ताकत और विश्वसनीयता का ऐसा आभास मिलता था कि कोई भी आश्वस्त महसूस किए बिना नहीं रह सकता. दुभाषिया सोनम टॉपगे के साथ हम दोनों के बीच बातचीत में ज़्यादा समय नहीं लगा." 

Precious Teachers in The Complete Works of Sangharakshita, vol. 22, pp.391–2

"इस समय तक मुझे रिम्पोचे पर काफी भरोसा हो गया था, और इसलिए मैंने उनसे पूछा कि वे मुझे बताएं कि मेरा यिदम या संरक्षक देवता कौन है ... आंतरिक स्मरण के एक पल के बाद मुझे बताया गया कि मेरा यिदम डोलमा जुंगो या ग्रीन तारा है, जो निर्भयता और उत्स्फुर्त सहायता की 'स्त्री' बोधिसत्व है, और यह भी कहा कि तारा भारत और तिब्बत के कई महान पंडितों की संरक्षक देवता रही हैं." 

In the Sign of the Golden Wheel in The Complete Works of Sangharakshita, vol. 22, p.374

इसके बाद चतरुल रिम्पोचे ने दीक्षा प्रदान की और ध्यान के बारे में विस्तार से बताया.

"कुछ दिनों बाद, चतरुल सांग्ये दोरजे एवर्टन विला में मुझसे मिलने आए. ……  उन्होंने मुझे फिर से ग्रीन तारा साधना के बारे में समझाया और उसके अभ्यास के बारे में मुझे और निर्देश दिए. ……. इस यात्रा के दौरान ही चतरुल रिम्पोचे को मुझसे जानकारी मिली कि एवर्टन विला केवल एक किराए की संपत्ति है, उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि मैं जल्द ही अपने सपनों का स्थायी धम्म केंद्र स्थापित करने में सक्षम हो जाऊंगा और मुझे इसे 'त्रियान वर्धन विहार ' कहना चाहिए. फिर उन्होंने मुझे, उच्च प्रेरणा के मूड में, निम्नलिखित मूल तिब्बती गाथाओं  से संबोधित किया.

असिम आकाश में मुनि की शिक्षा है 

तीनों शिक्षा*ओं की सहस्त्र किरणों को फैलाता हुआ सूर्य; *

निष्पक्ष शिष्यों की चमक में निरंतर चमकता हुआ,

त्रियान का यह जम्बूद्वीप क्षेत्र सुंदर हो!

अग्नि-वानर वर्ष में प्रथम महिने के नौवे दिन,

महास्थविर संघरक्षित द्वारा किए गए अनुरोध के अनुसार,

विद्याधर बोधिवज्र, शाक्य-उपासक द्वारा यह लिखा गया था:  [सुख और आशीर्वाद हो]!”

*[अर्थात शील, समाधी और प्रज्ञा]

Precious Teachers in The Complete Works of Sangharakshita, vol. 22, pp.392–4

Triyana Vardhana Vihara - ‘The Vihara Where the Three Yānas Flourish’.  1957

त्रियान वर्धन विहार - 'वह विहार जहां तीन यान फलते-फूलते हैं'.  1957

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शांतिपूर्ण सफ़ेद डाकिनी थांग्का

बाद के वर्षों में, जब संघरक्षितजी पश्चिम में रहने के लिए वापस लौट आए, त्रिरत्न बौद्ध संघ के विभिन्न सदस्य उनके शिक्षक, चत्रल (चतरुल) रिम्पोचे (1913-2015) से मिलने जाते थे, ताकि वे अपना सम्मान व्यक्त कर सकें और उर्ग्येन संघरक्षितजी की ओर से शुभकामनाएँ या उपहार दे सकें. आमतौर पर रिम्पोचे एक सफ़ेद भेंट वाला दुपट्टा वापस भेजते थे. एक अवसर पर, रिम्पोचे ने कुछ दवा की गोलियाँ भेजीं, जिन्हें उन्होंने आशीर्वाद दिया था, साथ में एक शांतिपूर्ण श्वेत डाकिनी का यह थांग्का भी भेजा.  श्वेत डाकिनी एक ऐसा चरित्र है जो संघरक्षितजी के और एक शिक्षक दुज्जोम रिम्पोचे (1904-1987) के शिक्षण के चक्रों में से एक में केंद्रीय स्थान रखता है.

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