पूर्वी हिमालय में उनके अपने कलिम्पोंग विहार में, और डॉ. अंबेडकर के बौद्ध अनुयायियों के बीच मैदानी इलाकों में, संघरक्षितजी का जीवन समृद्ध और पुरस्कृत था. इंग्लिश संघ ट्रस्ट ने उन्हें ट्रस्ट के हैम्पस्टेड बुद्ध विहार में कुछ महीने बिताने इंग्लैंड आने के लिए आमंत्रित करने तक संघरक्षितजी की वहाँ से कहीं और जाने की कोई योजना नहीं थी. उनके मित्र क्रिसमस हम्फ्रीज़ लंदन की बुद्धिस्ट सोसाइटी के संस्थापक और अध्यक्ष थे. भारत छोड़ने से पहले उन्हें उनसे पता चल गया था कि छोटा-सा ब्रिटिश बौद्ध विश्व अपने आप में ही उलझा हुआ है. शायद वह मदद कर सकें.
संघरक्षित और त्रियान वर्धन विहार, कलिम्पोंग, भारत के बाहर के आगंतुक. 1963
विहार में स्थिर होने के बाद, उन्होंने लंदन के प्रतिद्वंद्वी संस्थानों में व्याख्यान दिए और देश भर के बौद्ध समूहों का दौरा किया. उनके भाषणों में बुनियादी बौद्ध विषयों का समावेश था, साथ ही वे अपने श्रोताओं को व्यापक परंपरा की समृद्धता से भी परिचित कराते थे. जैसे-जैसे उन्होंने लंदन के जीवन और पश्चिमी तौर-तरीकों को अपनाया, उनकी कल्पनाओं ने अपना काम करना शुरू कर दिया. टेरी डेलामेरे के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता ने इसमें मदद की. वे मौजूदा संस्थानों के भीतर काम करने के लिए नैतिक रूप से बाध्य महसूस करते थे. फिर भी, अंग्रेजी, यहाँ तक कि पश्चिमी, बौद्ध आंदोलन की संभावना से वे प्रेरित होते रहे. फीर उन्होंने भारत की यात्रा की, यह विदाई की यात्रा है यही विचार उनके मन में कायम था. उन्हे पूरी उम्मीद थी कि वे इंग्लैंड लौटेंगे.
हेम्पस्टेड बौद्ध विहार, लंदन, यूके में संघरक्षित और अन्य. 1966
हालांकि, कलिम्पोंग में इंग्लिश संघ ट्रस्ट की ओर से एक पत्र उनका इंतजार कर रहा था. उसमें कहा गया था कि ट्रस्ट द्वारा अब उनका स्वागत या सहायता नहीं की जाएगी. कारण स्पष्ट नही थे. और उन्हें भारत में अपना काम जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया गया था. शायद उन्होंने उन प्रतिद्वंद्वी चरमपंथियों को नाराज़ कर दिया था. या शायद वे टेरी डेलामेरे के साथ अपनी दोस्ती के बारे में कुछ (निराधार) चुगलीयों का शिकार हो गए थे. जो भी हो, अब वे एक नया आंदोलन शुरू करने के लिए स्वतंत्र थे.
टेरी डेलामेर और संघरक्षित. कलिम्पोंग, भारत 1966
लंदन में वफ़ादार दोस्तों ने उनका स्वागत किया, उनकी व्यक्तिगत ज़रूरतों का ख़र्चा उठाया और सेंट्रल लंदन में एक छोटे से बेसमेंट रूम का किराया भी चुकाया. इसे अप्रैल 1987 में 'त्रिरत्न ध्यान और पूजास्थान कक्ष' के रूप में समर्पित किया गया था. संघरक्षितजी ने व्याख्यान देना जारी रखा, नियमित ध्यान कक्षाएं चलाईं और कभी-कभी प्रकृति के सानिध्य में शिविर चलाए. यह सब आयोजन अब फ्रेंड्स् ऑफ दी वेस्टर्न संघ के तत्वावधान में होने लगा था. जैसे-जैसे उन्होंने पश्चिमी संदर्भ में धर्म के प्रचार के तरीकों की खोज की, उनके नियमित अनुयायी इसमें रम गए और अपने आचरण को गहरा करने लगे. एक साल के भीतर, उन्हें विश्वास हो गया कि उनमें से काफी लोग उनके दृष्टिकोण से सहमत थे और उनके प्रति प्रतिबद्ध महसूस करते थे. अप्रैल 1968 में उन्होंने बारह पुरुषों और महिलाओं को दीक्षा दी. और पश्चिमी (आज का त्रिरत्न) बौद्ध संघ का जन्म हुआ.
त्रिरत्न ध्यान और पुजास्था कक्ष, लंदन, यूके. 1967
फ्रेंडस् ऑफ दी वेस्टर्न बुध्दिस्ट ऑर्डर, जैसा उस वक्त जाना जाता था, धीरे-धीरे बढता गया. स्थापना से लेकर दो साल इसके संस्थापक के लिए असाधारण रूप से रचनात्मक रहे. ज़ेन, तिब्बती बौद्ध धर्म, आर्य अष्टांगिक मार्ग और सद्धर्म पुंडरिक सूत्र पर व्याख्यान देने के साथ-साथ, उन्होंने 'हायर ईव्हाॅल्युशन ऑफ मॅन' ('मनुष्य की उच्च उत्क्रांति') और 'हायर ईव्हाॅल्युशन ऑफ दी इंडिविज्युअल'( 'व्यक्ति की उच्च उत्क्रांति') इन विषयों पर व्याख्यान श्रृंखलाए दी. पश्चिमी भाषा में उसकी अपनी प्रकृति के अनुसार बौद्ध धर्म के बारे में बात करने के तरीकों की खोज करने का यह नया प्रयास था.
व्यक्तिगत मोर्चे पर वे दो युवाओं के साथ उत्तरी लंदन में एक फ्लैट में रहते थे. यह दोनों कला शाखा के विद्यार्थी थे. जैसा कि उन्होंने आगे चलकर कहा होता, 'एक बुरे भिक्षु लेकिन एक अच्छे बौद्ध' की तरह रह रहे थे. पूजा और समारंभों के वक्त ही वे चिवर पहनते थे और कीसी पुरुष के साथ पहली बार यौन संबंध बना रहे थे.
संघरक्षित शिविर में सिकाते हुए, केफोल्ड्स, हस्लेमर, सॅर, यूके. 1968
1970 में, निमोनिया के एक दौर से उबरने के बाद, जिसने उन्हें लगभग मार ही डाला था, उन्होंने येल में तीन महीने का विजिटिंग प्रोफेसर का पद संभाला, जहाँ उन्होंने युवा अमेरिकियों की ऊर्जा और उत्साहपूर्ण प्रत्यक्षता का आनंद लिया. फिर वे इंग्लैंड लौट आए, जहाँ उनके कुछ प्रथम संघ सदस्यों ने उनकी अनुपस्थिति में चीजों को जारी रखा था. धम्म-कक्षाओं में उपस्थिति बढ़ रही थी…
नागबोधि
येल विश्वविद्यालय, यूएसए. मई 1970
क्रिसमस हम्फ्रीज़ का पत्र दिनांक 29/5/1963
क्रिसमस हम्फ्रीज़ (1901-1983) एक ब्रिटिश बैरिस्टर और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे. 1924 में उन्होंने बौद्ध सोसाइटी की स्थापना की, जो एक गैर-सांप्रदायिक संगठन था, जिसके वे अपनी मृत्यु तक अध्यक्ष रहे. 1962 में प्रकाशित उनकी सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताब ‘बुद्धिज़्म’ प्रकाशित की. इस किताब ने 'संभवतः 1879 के सर एडविन अर्नोल्ड की द लाइट ऑफ़ एशिया के प्रकाशन के बाद (किसी भी अन्य किताब की तुलना में) सबसे ज़्यादा लोगों को बुद्ध और उनकी शिक्षाओं से परिचित कराया.' उनकी विशेष रुचि ज़ेन बौध्दधर्म में थी.
जब संघरक्षितजी कलिम्पोंग में रह रहे थे, उनको लिखा गया यह चार पन्नों का पत्र, उस समय के, इग्लैंड के इग्लिश संघ एसोसिएशन और बुध्दिस्ट सोसाइटी के बीच की कठिनाइयों को रेखांकित करता है. हम्फ्रीज़ संघरक्षित में अपना विश्वास व्यक्त करते हैं कि वे उन कुछ लोगों में से एक हैं जो उनके बीच सुसंवाद निर्माण करने के 'मुश्किल कार्य' करने में सक्षम हैं.